निजी हाई प्रोफाइल स्कूलों में बस्ते का बोझ
डॉ. सरिता चौहान
मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से एक गाइडलाइन के अनुसार भविष्य में बस्ते के बोझ को कम करने के लिए कुछ दिशा निर्देश जारी किए गए हैं। उस गाइडलाइन के अनुसार कक्षा 2 तक का बच्चा बस्ते के बोझ से मुक्त होगा। यह एक सराहनीय पहल है किंतु इसका अनुपालन मुश्किल सा प्रतीत होता है। स्कूली बस्ते के बोझ को घटाने के लिए वैसे तो तमाम गाइडलाइन का प्रयोग किया गया है जिसमें कक्षा 7 तक के बच्चों के बस्तो के बोझ को काम करने की बात कही गई है। निजी स्कूलों में बस्ते का बोझ सबसे ज्यादा है अथवा यूं कहें कि सरकारी स्कूलों की अपेक्षाकृत काफी अधिक है। यदि हम इस विषय पर चिंतन - मनन करें तो इसके पीछे बुद्धि विकास के उच्चतम स्तर का कोई कारण न होकर व्यापारिक रुचि ही प्रमुख जान पड़ती है। बच्चों के कोमल मन मस्तिष्क पर गैर जरूरी बस्ते का बोझ लादना कहां तक की समझदारी है। अपनी प्रारंभिक उम्र से ही बच्चा रटी-रटाई शिक्षा ले रहा है और हम बात करते हैं कौशल विकास की। खासकर फील इन द ब्लैंक (खाली जगह भरो) बच्चों को रटा दिया जा रहा है। पाठ्यक्रम इतना ज्यादा है कि एक पाठ को एक से अधिक बार पुनरावृति करना मुश्किल है ,जिसे पीटी-1, पीटी-2, पीटी-3 में विभाजित कर दिया गया है। पीटी-1 के बाद अगर बच्चे को प्रथम पाठ की पुनरावृति करनी हो तो कोर्स पीटी- 2 में चला गया है। अब बच्चा पीटी-1 के कोर्स को बिना समझे पीटी-2 के कोर्स को रटेगा। माता-पिता भी होमवर्क की चक्की में पीस रहे हैं। बात करें बच्चों के शारीरिक विकास की तो मानों बच्चा नींद से उठा और मुंह धो कर स्कूल चला गया। उसके पास एक गिलास दूध और ब्रेकफास्ट लेने का भी समय नहीं बचता। प्रातः के 6:00 बजे ही स्कूल बस दरवाजे पर आकर खड़ी हो जाती है और 1 घंटे जो बच्चे के ब्रेकफास्ट का समय है वह उस समय में स्कूल बस में बैठकर शहर और गोल चौराहा का चक्कर लगाता है। अब एक तो बच्चे का कोमल मस्तिष्क, दूसरे मासूमियत से भरी हुई बुद्धि, जहां वह अपना खाना- पीना भी भूल जाता है। बच्चों की शारीरिक कमजोरी की वजह से बच्चों की मानसिक चेतना भी दब कर रह जाती है। अगर हम अरस्तु के कथन पर दृष्टि डालें तो 'स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का विकास होता है'। इस प्रकार हम बच्चों के विकास की दौर में कितना पीछे हैं। कितने बच्चे तो इस समस्या की वजह से मानसिक चिड़चिड़ापन के शिकार हो रहे हैं। ऊपर से बस्ते का बोझ अलग। बस्ते के बोझ को कम करने के लिए सबसे पहले स्वास्थ्य विभाग और शिक्षा विभाग को आगे आकर निजी स्कूलों की मनमानी पर रोक लगानी चाहिए।
22 अगस्त 2024 को देहरादून सरकार की एक सराहनीय पहल सामने आई है जिसमें निजी स्कूलों में प्रत्येक माह के अंतिम शनिवार को बस्ता मुक्त दिवस मनाने का निर्णय लिया गया है लेकिन यह भी कोई खास कारगर उपाय नहीं है। बाकी के 29 से 30 दिन तो बच्चा बस्ते के बोझ से दबा हुआ है। हां एक दिन के लिए वह बच्चा अपने को इस बोझ से फ्री जरुर महसूस कर सकता है जो उसके मानसिक सुकून के लिए कुछ हद तक कारगर है। इन सब के बीच सवाल यह है कि बस्ते के लगातार बढ़ते बोझ के लिए कौन जिम्मेदार है।
केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने नवंबर 2018 में इसे कम करने के लिए कई राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को कुछ निर्देश जारी किए थे लेकिन उसका कोई सफल परिणाम सामने नहीं आया। इसी आधार पर मेघालय सरकार ने राज्य के तमाम स्कूलों में बस्ते के बोझ को कम कर छात्रों को राहत देने की कोशिश की है। मेघालय की संगमा सरकार ने जो दिशा निर्देश जारी किए हैं उसमें कक्षा एक और कक्षा दो के छात्रों को होमवर्क नहीं देने की बात कही गई है जिससे अभिभावकों ने भी कुछ हद तक राहत की सांस ली है। संगमा सरकार ने शिक्षा विभाग के तमाम स्कूलों के प्रिंसिपल से ऐसा टाइम टेबल तैयार करने को कहा है कि छात्रों को ज्यादा पुस्तकें व नोटबुक लेकर स्कूल न जाना पड़े।
सरकारी अधिसूचना के अनुसार कहा गया है कि कक्षा 1 से कक्षा 2 तक के बच्चे के बस्ते का वजन डेढ़ किलो से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। कक्षा तीन से कक्षा 5 तक के बच्चों के बस्ते का वजन 3 किलो तक होना चाहिए। छठवीं व सातवीं कक्षा के बच्चों के बस्ते का बोझ अधिकतम 4 किलो होना चाहिए। आठवीं और नवमी कक्षा के लिए यह सीमा साढ़े चार किलो और दसवीं कक्षा के छात्रों के लिए यह सीमा 5 किलो तक है। लेकिन यह कहीं भी लागू नहीं है। इस संदर्भ में शिक्षाविदों का कहना है कि 'इसके लिए बिना ठोस कदम उठाए समस्या से निजात पाना मुश्किल है।'
अब सवाल यह है कि स्कूली बस्ते का भारी बोझ अपने आप में एक अहम समस्या है या भारतीय शिक्षा प्रणाली की सबसे बड़ी खामी है। सन् 1993 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से नियुक्त प्रोफेसर यशपाल समिति ने जो रिपोर्ट जारी की उसमें यह कहा गया कि छात्रों पर भारी बस्ते का बोझ नहीं लादनी चाहिए। केंद्रीय विद्यालय संगठन ने भी वर्ष 2010 में बस्ते के बोझ पर कार्यकारिणी बैठक की थी जिसमें बस्ते के बोझ पर विचार विमर्श किया गया था। कई शिक्षा बोर्ड भी इस विषय में अलग-अलग दिशा निर्देश जारी करते रहे हैं। समय-समय पर इस संदर्भ में जनहित याचिकाएं भी दायर की जाती रही हैं लेकिन समस्या वैसे की वैसी ही है। शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के तहत स्कूलों में साफ सफाई व समुचित पेयजल की व्यवस्था की बात कही गई है लेकिन बस्ते के बोझ से संबन्धित कोई जिक्र नहीं है।
बस्ते के बोझ जैसी समस्या से कैसे पाए निजात
इसमें हम कुछ बिंदुओं के तहत अपने सुझाव प्रस्तुत किए हैं जो भविष्य में कारगर सिद्ध हो सकता है।
1-बस्ते के बोझ से बच्चों के पीठ और कमर में दर्द जैसी समस्याएं सामने आ रही हैं जिसके लिए बस्ते के बोझ को कम कर प्रत्येक स्कूल में डिजिटल मॉनिटरिंग की व्यवस्था कराई जाए जिससे कुछ विषयों में कम किताब ले जानी पड़े।
2- टी.एल.एम. प्रत्येक विषय में जो की हस्त निर्मित हो विद्यालय में रखा रहे और शिक्षक उसका प्रयोग करके छात्रों को पढ़ाये और पाठ्य विषय को रोचक बनाते हुए छात्रों की अभिरुचि को बढ़ाएं। इसकी वजह से भी
कुछ किताबें कम ले जानी पड़ेगी।
3- विद्यालय में ही बच्चों को सामग्री देकर एस.एल.एम. का निर्माण कराएं जिससे बच्चे का कला- कौशल भी बढ़ेगा और बच्चे में शिक्षा के प्रति अभिरुचि जागृत होगी।
(लेखिका पीएम श्री एडी राजकीय कन्या इंटर कॉलेज गोरखपुर उत्तर प्रदेश में हिन्दी की प्रवक्ता हैं)
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